दलित पत्रकारिता की मशाल: एक समीक्षात्मक दृष्टि
विक्रांत टांक (वरिष्ठ पत्रकार)
प्रधान खोजी पत्रकार संघ
मीडिया को अक्सर "समाज का आईना" कहा जाता है, लेकिन जब हम इसके भीतर झांकते हैं, तो यह आईना कहीं न कहीं धुंधला और एकतरफा नज़र आता है। विशेष रूप से जब बात दलित समाज की आती है, तो मुख्यधारा की मीडिया में उनकी आवाज़ लगभग ग़ायब-सी हो जाती है। आंकड़े बताते हैं कि आज भी मीडिया संस्थानों में दलित पत्रकारों की भागीदारी 1 प्रतिशत से भी कम है। यह केवल एक संख्या नहीं, बल्कि एक सच्चाई है जो हमें सोचने पर मजबूर करती है — क्या वाकई मीडिया सबकी बात करता है? बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1920 में मूकनायक अखबार की शुरुआत करके दलित पत्रकारिता की नींव रखी थी। उन्होंने यह साबित किया कि अगर व्यवस्था में हमारी आवाज़ दबाई जा रही है, तो हमें अपनी व्यवस्था, अपना मंच और अपना मीडिया खड़ा करना होगा। आज जब मुख्यधारा की मीडिया विशेष जाति और मानसिकता के नियंत्रण में है, तब यह और भी जरूरी हो जाता है कि दलित समाज अपनी पत्रकारिता की परंपरा को फिर से जीवित करे।
इसी दिशा में लिखी गई डॉ. राम भरोसे की पुस्तक "दलित पत्रकारिता" एक ऐतिहासिक और विचारोत्तेजक दस्तावेज़ की तरह है। संवाद शैली में लिखी यह किताब न केवल पठनीय है, बल्कि पत्रकारिता के छात्र-छात्राओं के लिए मार्गदर्शक भी है। पुस्तक में दलितों की पत्रकारिता के संघर्ष, आवाज़ और आत्मसम्मान को विस्तार से समझाया गया है। यह सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि एक मिशन है — न्यायपूर्ण और समावेशी मीडिया की ओर। साथ ही डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण का लेख "निर्भीक संपादक डॉ. भीमराव अंबेडकर और भारतीय पत्रकारिता" भी पठनीय है। यह लेख उस समय की पत्रकारिता के स्वरूप और अंबेडकर की निर्भीकता को उजागर करता है, जब उन्होंने सत्ता और समाज के विरोध में सच बोलने का साहस दिखाया। जो युवा मीडिया के क्षेत्र में अपने लिए एक सशक्त पहचान बनाना चाहते हैं, उन्हें इन पुस्तकों को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह साहित्य न केवल उन्हें एक नई दृष्टि देगा, बल्कि दलित पत्रकारिता की चेतना का वाहक भी बनेगा। अब समय आ गया है कि हम अपने मीडिया की बुनियाद खुद रखें, अपनी आवाज़ खुद उठाएं और अपने समाज के सच को दुनिया के सामने लाएं।
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